Friday 29 November 2013

गीत - कवि से...

गीत 



है प्रगति का पंथ पाना।

विहँसते उपवन मिलेंगे,खिलखिलाती सुमनमाला,
और लतिका मुस्कराती, गान मधुपों का निराला।
ओस के मोती बिछे से, देखकर मत मन लुभाना,
है प्रगति का पंथ पाना। 

विरह से जलता पपीहा, कह उठेगा देख तुझको, 
पी कहां रे पी कहां हा, खोज रे मम प्राण पियको।
उस समय विरही न बनकर, अश्रु  छन्दों में बहाना, 
है प्रगति का पंथ पाना। 

देखता आया युगों से,विश्व परिवर्तक विधाता, 
हो तुम्हीं जन-जन ह्रदय के,भय विदारक सौख्यदाता।
कल्पना के लोक से है,साधना के लोक आना,
है प्रगति का पंथ पाना।

आज जन-जन के ह्रदय से,दूर कर दे रे दुराशा,
एकता का भाव भर दे,कर फुरित उत्फुल्ल आशा।
नव प्रगति का गीत गा रे, तज प्रणय के गीत गाना,
है प्रगति का पंथ पाना। 

Sunday 24 November 2013

गीत - आज कहां हो

गीत


                           सूने तम में आज कहां हो ।।
भाव अकिंचन ह्रदय शून्य हैं,प्रेमल विहर रहे किस थल में,
खोज -खोज कर हार चुका हूँ,तुम बसते हो अन्तर तल में,
विजन शरद निशि घूर रही है, ऐसे में चितनाथ कहां हो।                             सूने तम में आज कहां हो।।

कभी कहा था याद रहेंगे, जीवन में ये जीवन के दिन,
बसे रहेंगे सदा दृगों में, कभी न होंगे विलग एक क्षण,
भूल गया या भूल गये हो,जीवन के ॠतुराज कहां हो।
                          सूने तम में आज कहां हो।।

संसृति घोर द्वंद्व करती है,परिवर्तित होकर क्षण -क्षण में,
भय लगता है, भूल न जाना, पड़कर के इस प्रेमल पथ में,
आज जगत को भूल चुका हूँ, स्मृति के आधार कहां हो।
                          सूने तम में आज कहां हो।।

जीवन सागर की लहरों में,खोज -खोज कर मन मारा,
तट पर हो या सलिल बीच हो,कब से अब तक पंथ निहारा,
लोचन मग से उर में आओ, जीवन के घनश्याम कहां हो।
                         सूने तम में आज कहां हो।।

मलय समीरण की सर-सर में, आज प्रणय के गीत कहां,
अंधकार में हाय, अकेला, जीवन चित्र अतीत कहां,
जला रही है विरह अनल, बन जीवन वन वनराज कहां हो।
                        सूने तम में आज कहां हो।। 

Saturday 23 November 2013

गीत - रूपसी रूप यौवन छुपाती चलो...

गीत 


रूपसी रूप यौवन छुपाती चलो। 

कोई छलिया न पथ में तुम्हें जाय मिल, 
देख उसकी अदा उर- कमल जाय खिल। 
प्रेम का एक नाटक न दे वह रचा, 
और तुम पात्र बनकर लुटा दो अखिल। 
वह सफलता पे अपनी स्वयं हो फिदा, 
और तुम गर्व से मुस्कराती चलो। 

रूपसी रूप यौवन छुपाती चलो ।। 

तेरे सौन्दर्य की कर प्रशंसा यहां, 
लूट लेने को कितने भ्रमर घूमते। 
प्रेम का ढोंग, वैभव की ढपली बजा, 
वासना से विनत हो चरण चूमते। 
अपनी लय-ताल पर दें न तुमको नचा,
और तुम भाग्य पर गुनगुनाती चलो। 

रूपसी रूप यौवन छुपाती चलो।। 

है अमरता न यौवन की इस राह पर,
नाम भ्रमरों के जो साथ जुड़ जायगा। 
जिन्दगी भर न छूटेगा यह दाग फिर, 
तेरे जीवन का उपवन उजड़ जायगा। 
पास होंगे न वे,साथ होगा न जग,
तब बचेगा, झिझकती लजाती चलो।

रूपसी रूप यौवन छुपाती चलो।। 

कोई चातक न तुमको कभी चाव से,
मान घनश्याम अपलक निहारा करे।
प्यार में हो समर्पित तुम्हारे लिये, 
अपना तन- मान- धन नित्य वारा करे। 
तब समय याद आयेगा बीता हुआ, 
पंथ होगा कि आंसू बहाती चलो। 

रूपसी रूप यौवन छुपाती चलो।।  

Wednesday 20 November 2013

गीत - कवि क्या कर दे?

                            गीत

बोलो तो कवि क्या कर दे ।।
एक ओर दलितों की आहें,रह-रह हाय निकलतीं।
एक ओर भूखे शिशुओं की,भूखी सांसें ढलती   ।
माता निरख रही शिशुओं को,भीगी पलकों से   ।
स्नेह प्रदर्शित करती उनकी, रूखी अलकों से  ।
बोलो उनके जीवन गहवर, में कवि क्या भर दे  ।
नीरस जीवन-घट को कैसे, सरस मधुर कर दे  
बोलो तो कवि क्या कर दे ।।

एक ओर झनकार रहीं, तलवारें सीमा पर।
दस्यु गरजते इधर आ रहे, बढ़ते ही सर पर।
प्रक्षेपास्त्र ग्रसित नभ मण्डल, थर थर कांप रहा।
समय निरन्तर मानवता की सीमा  नाप  रहा।
बोलो उनके प्राणों में कवि,विजय घोष भर दे।
अथवा शाश्वतशान्ति,युक्त जन स्वासों को कर दे।
बोलो तो कवि क्या कर दे।।

एक ओर बहती हैं फैशन की रंगीन हवाएँ।
प्रेमालाप किये देता है,मुखरित मौन दिशाएँ।
अरे आज सौन्दर्य निरा उपहास बना जाता।
उच्छृंखलता का भारत को रोग लगा जाता।
उन्हे सात्विक प्रेम पंथ का,सहज ग्यान वर दे।
अथवा झूठे विरह समाकुल, उर में रस भर दे।
बोलो तो कवि क्या कर दे।।

Monday 18 November 2013

गीत - हम न होंगे एक दिन संसार होगा

गीत 

हम न होंगे एक दिन संसार होगा। 
अश्रु पलकों  में छुपाये, 
याद कर पिछली कहानी। 
हूक अन्तर में उठेगी, 
देख कर कोई निशानी। 
उर भरे अवसाद में, मेरा सिसकता प्यार होगा। हम 0
तरु लताएँ झूमकर, जब,
मोद उर-उर में भरेंगी। 
मंद मलयानिल लहक कर, 
जब हृदय शीतल करेगी।
पी कहाँ, स्वर के सुनें, उर-बीच हाहाकार होगा। हम 0
जब कहीं कोई करेगा, 
भूलकर गुणगान मेरा।
या कभी तुमको दिखेगा, 
था जहाँ मेरा बसेरा। 
हूक जब उर में उठेगी, शेष क्या उपचार होगा। हम 0
सबल संबल बन जिन्हें, 
देते रहे अविरल सहारा। 
आज यद्यपि मिल चुका है,
विपद सरिता का किनारा। 
याद आयेगी उन्हें, जब, सामने मँझधार होगा। हम 0
अज्ञता वश आज जिनको,
मूल्य लगता शून्य मेरा। 
समय आते सब उन्हें, 
समझा चुकेगा जग चितेरा। 
सिर धुनेंगेे कर मलेंगे, मात्र यह प्रतिकार होगा। हम 0

Saturday 16 November 2013

गीत -तुम नहीं हो

                               गीत 

                                    आज हम हैं तुम नहीं हो। 
                   यह मलय चंचल समीरण, 
                   डालियों से खेलता सा,
                   झूमता है कुंज दल में,
                   सहज सौख्य उड़ेलता सा, 
     सब सुमन तो हँस रहे हैं, पर अकेले तुम नहीं हो। 
                                    आज हम हैं तुम नहीं हो। 
                   मधुप अवली पान कर,
                   मकरंद को इठला रही है, 
                   झूंक से तरु वल्लरी भी, 
                   झूमती हैं गा रही हैं, 
    चांदनी है, चंद्र भी है, पर अकेले तुम नहीं हो।
                                  आज हम हैं तुम नहीं हो। 
                   कोकिलों की तान मोहक,
                   उपवनों में छा रही है, 
                   कुछ घुमड़ घिर घन घटा भी, 
                   शून्य पथ पर आ रही है, 
   विज्जु है, हँसती हुई भी, पर अकेले तुम नहीं हो। 
                                  आज हम हैं तुम नहीं हो। 
                   आ गया ॠतुराज सुंदर, 
                   नव सुखद संसार लेकर, 
                   हम एवं विरही पपीहा, 
                   रो रहे हा आश खोकर, 
   पूर्व जग है, हँस रहा भी, पर अकेले तुम नहीं हो। 
                                 आज हम हैं तुम नहीं हो। 

Friday 15 November 2013

गीत -कुंजों में आओ

                                 गीत 

                                      सूने दृग कुंजों में आओ।
      जिन कुंजों में बसे रहे थे, उनको मत विसराओ। 
      बाल सुलभ चापल्य दिखाकर, लुकते छिपते आओ।
      मोद भरो आकर के उर में, सूने कुंज बसाओ। 
      आज अश्रुधारा से तेरे, कुंज बहे जाते हैं। 
      जीवन अरमानों के मंदिर, हाय ढहे जाते हैं। 
      यदि कुंजों को सूना करके, छोड़ तुम्हें जाना था। 
      तो इन कुंजों को पहले से, कभी न अपनाना था। 
      आओ-आओ फिर कुंजों में, आकर इन्हें बसाओ। 
      चंद बदन की मंजु चंद्रिका, आ इनमें बिखराओ। 
                                        सूने दृग कुंजों में आओ।





Wednesday 13 November 2013

गीत - पंछी केवल नीड़ न झांको

गीत 

पंछी केवल नीड़ न झांको,
                         बाहर सोने का संसार।

कुछ तिनकों को बीन-बीन कर,
                         तुमने अपना नीड़ बनाया। 
स्वर्ण क्षणों का संगम देकर,
                         उन तिनकों में स्नेह सजाया। 
वे हैं जिस संसृति के तिनके,
                         वह संसृति है रूप अगार। 
                         पंछी केवल नीड़ न......।।

ममता पली नीड़ में रहकर,
                         स्वप्न सुनहरे कितने आये। 
जिनमें जीवन भी मुसकाया,
                         पर अभिमत फल हाथ न आये। 
कोई अभिमत फल दाता भी,
                         इस जग के उस पार। 
                         पंछी केवल नीड़ न....।।

ये तरु-लता देखकर तुझको,
                         एक क्षितिज रेखा भर देते। 
क्षितिज अंक ले विश्व तुम्हारा,
                         उसमें प्राणों के स्वर देते। 
संसृति के प्राणों का सरगम,
                         व्याप्त जहां वह शून्य अपार। 
                        
पंछी केवल नीड़ न झांको,
                         बाहर सोने का संसार।

Tuesday 12 November 2013

गीत -जब हँस पड़े थे

गीत 

 नत नयन जब हँस पड़े थे।
                    मंद मलयानिल लहकती, 
                    तरु लताएँ झूमती थीं,
                    उपवनों में पुष्प दल के, 
                    वल्लरी मुख चूमती थी।
देखकर हम खिल उठे थे,
नत नयन जब हँस पड़े थे।।
                    फिर कभी देखा गगन में, 
                    मेघ घिरते आ रहे हैं, 
                    अंशुमाली झेंपते से, 
                    ताप खोकर जा रहे हैं।
देख हम विस्मित हुए थे,
नत नयन जब हँस पड़े थे।।
                    गात जग के कांपते थे, 
                    जब भयंकर शीत से, 
                    हम मिले थे कांपते से, 
                    जब परस्पर प्रीति से।
दृग दृगों से कह उठे थे,
कुछ नत नयन जब हँस पड़े थे।।
    नत नयन जब हँस पड़े थे।। 
       
                    
                

               

Sunday 10 November 2013

गीत - प्यार में हम तुम्हारे तड़पते रहे

                               गीत 

प्यार में हम तुम्हारे तड़पते रहे,
              तुम कहीं और नजरें मिलाती रहीं।

रूप सौन्दर्य की वन्दना में सदा,
               पा दिलासा तेरा,सर झुकाते रहे।
तुम न रूठो कभी नित नये चाव से,
                हो मुखर प्यार के गीत गाते रहे।
स्वर हमारे सुने अनसुने कर दिये,
                तुम किसी का प्रणय गीत गाती रहीं।

                प्यार में हम तुम्हारे तड़पते रहे।

हर समय हम तुम्हारे दिवाने बने,
                 प्यार में रात दिन आह भरते रहे।
फूल से तन पे कोई भ्रमर लालची,
                 दृष्टि दे ना गड़ा, ध्यान धरते रहे।
किन्तु उर में हमारे न झांकी कभी,
                 दृग किसी और के मग विछातीं रहीं।

                 प्यार में हम तुम्हारे तड़पते रहे।

बन कसक प्यार की हूक उठती रही,
                      उर सदा प्यार को ही मचलता रहा।
बेवफाई बनी तीर गड़ती रही,
                      प्यार तेरे विरह बीच जलता रहा।
वह सिसकता हुआ तोड़ता-दम रहा -
                      तुम नशेमन किसी का सजातीं रहीं।

                      प्यार में हम तुम्हारे तड़पते रहे।

Saturday 9 November 2013

गीत -छोड़कर मुझको अकेला

                                गीत 

छोड़कर मुझको अकेला, 
                             जा रहे किस ओर राही।
             प्रेम तरु की सघन छाया-
             पा, किया आवास अपना। 
             विश्व झंझा से बचे तुम,
             सच हुआ कुछ मधुर सपना। 
             किन्तु तुमने क्या किया यह
                             बन चले चित चोर राही।
             नत नयन हँसते हुए ही, 
             चित्त में गहरे समाये।
             मधुर सी मुस्कान का रस,
             विहँस कर नित साथ लाये।
जब चले आहत किया क्यों? 
                             उर नयन की कोर राही।। 
             कट रही जीवन निशा अब, 
             आ रही अवसान, वेला।
             स्नेह तरु पल्लव झड़े सब,
              रह गया पतझड़ अकेला। 
अब तुम्हारे स्वर्ण दिन का, 
                             हो रहा है भोर राही।। 
              पल्लवों ने जो किया कुछ, 
              और सुमनों ने सजाया।
              कंटकों ने विषधरों से,
              विश्व के तुमको बचाया।।
तव पलायन पर घृणा से, 
                             जग करेगा शोर राही।। 

Monday 4 November 2013

गीत - प्यार का प्रतिदान देना

                                गीत

मृत्यु के आकुल क्षणों में, प्यार का प्रतिदान देना। 
मृत्यु के बादल घुमड़ कर,  घेर लें असहाय तन को, 
चेतना का विकट झंझा,  घेर ले जब विकल मन को, 
विगत स्मृतियाँ समेटे,  तब कहीं से पास आकर, 
विहँस कर अन्तिम विदा का - 
                                  तब प्रिये वरदान देना । 
                                  प्यार का प्रतिदान देना।। 
शब्द अधरों पर धरे से, कण्ठगत हों प्राण मेरे, 
हिचकियों में चाह रोती, जब किसी को हाय टेरे,  
नत नयन हो,कुछ झिझक कर,फिर सँभल कर क्षुब्धमन से,
चिर दलित निज प्यार को तुम -
                                  प्यार का बलिदान देना। 
                                  प्यार का प्रतिदान देना।। 
रूप की शैशव छटा जब, हूक बन-बन कर कुरेदे,
फिर कभी विरही विगत की याद जब आ, हृदय बेधे,
वंचना के ज्वार से छुट, स्वर्ण क्षण आये, उन्हें भी,
स्वत्व जीवन का समझकर-
                                  प्यार पर अधिमान देना। 
                                  प्यार का प्रतिदान देना।। 
                            



Saturday 2 November 2013

गीत-पतझर आ जाये

                               गीत 

जीवन का ॠतुराज मिटे कब, 
                           कब जाने पतझर आ जाये। 
             मलय समीरण के सहचर बन, 
             निज सुगंध से जग महकाया। 
             रूप सुधा से खिंच-खिंच आये,
             कितने भ्रमरों को भरमाया। 
पता नहीं कब किस भौंरे की, 
                            आह प्रभंजन बन लहराये।
                             कब जाने पतझर आ जाये।। 
             जग से अनुनय विनय बहुत की,
             जीवन का मधुमास लुटाया।
             जिस माली ने जीवन देकर,
             देवों के सिर पर बिठलाया। 
कौन कहे,अपमान उसी का,
                             जीवन से ज्वाला बन जाये। 
                             कब जाने पतझर आ जाये।। 
             झुलस-झुलस कर कांति हीन हो,
             निज अस्तित्व बचा न सकोगे। 
             भरमाये भ्रमरों के कर से, 
             प्रेम सुधा-रस पा न सकोगे। 
रूप गन्ध का गर्व, पता क्या,
                            कीट मूल का ही बन जाये। 
                            कब जाने पतझर आ जाये।। 
            

Friday 1 November 2013

गीत-हम भाग जायें

                              गीत

तुड़ाकर के ये प्रेम बंधन तुम्हारा, 
                      कई बार सोंचा, कि हम भाग जायें।
मगर ठौर से पैर हटते नहीं हैं,
जमे नैन मुख से टसकते नहीं हैं। 
हृदय में भरे भाव टलते नहीं हैं,
किसी और को तो मचलते नहीं हैं।
सुधा रूप  मद से, स्वयं को बचा के,
                      कई बार चाहा कि हम भाग जायें।।
                      कई बार सोचा कि हम भाग जायें।। 
       कभी याद आते हैं, दो नैन प्यारे,
       विवश कर हृदय बीच धँसते हमारे। 
       उचक नासिका-पुट थपेड़े करारे,
       हुमक कर नई चोट उर बीच मारे। 
                       सचल बंक भृकुटी के मनुहार से  बच-
                        कई बार सोंचा कि हम भाग जायें। 
न हम भाग पाये,न तुम जा सके हो, 
अनिच्छा सही,किन्तु, अब तक रुके हो। 
तने तुम रहे पर,कभी तो झुके हो, 
कहो प्राण क्या उस झुकन में लुके हो। 
कहीं लौट आयें मेरे प्राण मुझ तक-
                       उन्हें साथ ले हम अभी भाग जायें। 
                       कई बार सोचा कि हम भाग जायें।